ज़र्रा ज़र्रा महकता था तेरी एक ज्हंकार से
सदियाँ बीत गई अब तो तेरे एक दीदार से
रात की चांदनी भी छीन गई है उन हसीन तारों से
की सूरज भी छिप जाता है उन बादलो के साये में
कभी तो दिखती हो तुम हमारी उस तसवुर में
और कभी तोह गूंजती है तुम्हारी मुस्कान हमारी उन कानों में
भरी उदासी में तेरा चेहरा देता हमको एक सुकून अपने उस आशियाने में
तभी तो छलक रहा है जाम हमारे उस पैमाने से
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