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Sunday, May 27, 2012

ज़र्रा ज़र्रा महकता था तेरी एक  ज्हंकार  से 
सदियाँ बीत गई  अब तो तेरे एक  दीदार से 

रात की चांदनी भी छीन  गई है उन हसीन  तारों से 
की सूरज  भी छिप जाता है उन बादलो के साये में 

कभी तो दिखती हो तुम हमारी उस  तसवुर में 
और कभी तोह गूंजती है तुम्हारी मुस्कान हमारी उन कानों में 

भरी उदासी में तेरा चेहरा देता हमको एक सुकून अपने उस आशियाने में 
तभी तो छलक  रहा है जाम  हमारे उस  पैमाने से